दस दोहे (51-60) / चंद्रसिंह बिरकाली
कड़कै वीज कुलच्छणी गाजै घण गंभीर ।
वाजै झीणो वायरो भाजै विरहण-धीर ।।51।।
कुलक्ष्णी बिजली कड़क रही है, घन गर्जन कर रहे है, मन्द पवन बह रहा है और विरहणी का धैर्य छूट रहा है ।
गाज न समझूं, बादळी मतना पळका मार ।
बूंदां लिखदे बांच लूं साजन रा समचार ।।52।।
बादली, मैं तेरी गरज नही समझती । तेरा यह चमकना भी व्यर्थ है । बूंदों के रूप में साजन के समाचार लिख दे जिन्हें मैं पढ़ लूँ ।
आभो धररायो अबै आयो सावण मास ।
पूरै मन सूं पूरसी आज धरा री आस ।।53।।
आकाश थर्रा रहा है, अब सावन का महीना आ गया है । आज पूरे मद से यह धरा की आशा पूर्ण करेगा ।
छावण लागी बादळी, हिवडै उमड्यो नेह ।
तरसण लागी तीजणी फड़कण लागी देह ।।54।।
बादलियाँ छाने लगी हैं और हृदय में स्नेह उमड़-उमड़ आया है, तीजनियाँ तरसने लगी हैं और उनकी देह फड़कने लगी है ।
ऊचां डाला मांडियां हींडा तकड़ी डोर ।
हींडै ऊभी तीजण्यां कर-कर पूरो जोर ।।55।।
ऊँची डालों पर मज़बूत डोरियों से झूले डाले गए है और तीजनियाँ खड़ी-खड़ी पूरे ज़ोर से झूल रही हैं ।
तकड़ै हींडां तीजण्यां जावै लाग अकास ।
बादळियां सामी मिलै, भर-भर हियै हुळास ।।56।।
मज़बूत झूलों पर झूलती हुई तीजनियाँ आकाश को छू लेती हैं और सामने बादलियाँ हृदय में हुलास भर-भर उनसे मिलती हैं।
रळमिळ चाली तीजण्यां गाती राग मल्हार ।
भणक पड़ी जद बादळी बरस पड़ी उण वार ।।57।।
तीजनियाँ हिल-मिल कर मल्हार राग गाती हुई चलीं। बादली के कानों में यह भनक पड़ते ही वह उसी समय बरस पड़ी ।
बाजै धीमो बायरो आभो लोरां-लोर ।
छिणमण-छिणमण छांटडी हिवडै़ उठै हिलोर ।।58।।
मंद पवन चल रहा है, आकाश में लोर पर लोर छा रहे है, छोटी-छोटी बूँदें पड़ रही हैं और हृदय में हिलोरे उठ रही हैं ।
नभ सूं उतरी बादळी ज्यूं वेर्यां पणिहार ।
साजन सामा आविया उळझ पड़ी उण वार ।।59।।
बादली आकाश से पनिहारी का रूप लेकर पृथ्वी पर उतरती हुई प्रतीत हो रही है। साजन के सामने आने पर उनसे उलझ रही है ।
बरसण आयी बादळी नैणां आयो नीर ।
धण किण विध अब धारसी देख धरा मन धीर ।।60।।
बादली बरसने आई है और आँखों में नीर भर आया है । धरा के मन में धैर्य देख कर धन्या अब किस प्रकार धैर्य धारण करेगी ।