दस दोहे (71-80) / चंद्रसिंह बिरकाली
सूंई धारां ओसरयो दूधां-वरण अकास ।
रात-दिवस लागै झड़ी सुरंगै सावण मास ।।71।।
दुग्ध वरण का आकाश सीधी धाराओं में बरस रहा है । सुरंगै सावन के महीने में रात-दिन झड़ी लग रही है ।
फांफां लाग्यां फाटिया भींतां लेव तमाम ।
जाणै मन सूं मांडियां चीतारै चित्राम ।।72।।
दीवारों पर किया हुआ लेप जल के झोंकों से फट कर ऐसा लगता है मानो चित्रकार ने मन लगा कर चित्र बनाये हों ।
घिरघिर घूमै बादळी फुरफुर चालै वाय ।
हिवडै लागै गिलगिली ठोड न ठहर्यो जाय ।।73।।
घिर-घिर कर बादल घुम रहे है और फिर-फिर कर हवा चल रही है । हृदय में हल्की गुदगुदी-सी होती है। और एक स्थान पर नहीं ठहरा जाता ।
बरसै भूरी बादळी दीसै थोड़ी दूर ।
आवै हळका लैरका, लद्-लद् सौरम-पूर ।।74।।
बरसती हुई भूरी बादली थोड़ी दूर पर दिखाई दे रही है । पवन की हल्की लहरियाँ पूर्ण सौरभ (सुगन्ध) से लदी हुई आ रही
हैं।
सोरम आवै सौगुणी मिळियों धर सूं मेह ।
डूंगै सांसां जग पियै हिवडै़ भीतर नेह ।।75।।
धरा से मेह का मिलन हुआ है जिससे सौगुनी सौरभ (सुगन्ध) आ रही है। संसार गहरे साँसों से हृदय में स्नेह पी रहा है।
सावण सांझ सुहावणी वाजै झीणी वाळ ।
गावै मूमल गोरड्या खावै हियो उछाळ ।।76।।
सावन की संध्या सुहावनी है। धीमी हवा चल रही है और गोरिया "मूमल" गीत गा रही है जिससे हृदय उछाल खा रहा है ।
बोलै हरिया सुवटा उड़-उड़ विरछां डाळ ।
डरर-डरर रव डेडरां पोखरियां री पाळ ।।77।।
वृक्षो की डालियों पर उड़-उड़ कर हरे शुक बोल रहे है और पोखरों के किनारे मेंढक ‘टर्र-टर्र’ कर रहे है ।
नान्हा गीगा पालणै खिल-खिल उछळिया ।
चूसै गूंठो चाव सूं मारै पग्गलिया ।।78।।
छोटे शिशु पलनों में हँस-हँस कर उछल रहे है और चाव से अँगूठा चूसते है तथा पैर फटकारते है ।
बाखळ रमै गुडाळियां छोटा टाबरियां ।
छांट्यां पकड़ण छोळ में रूढ़-रूढ़ लड़खड़िया ।।79।।
छोटे बालक आँगन में घुटनो से चल रहे है और बूँदें पकड़ने के आनन्द में लुढ़क-लुढ़क कर गिर रहे हैं ।
नाचै खड़ी गुवाड़ में टांबरियां री टोळ ।
झुक-झुक जोवै बादळी उझळ पडै़ दे छोळ ।।80।।
बालकों की टोलियाँ मौहल्ले में खड़ी नाच रही हैं । बादली उनको झुक-झुक कर देख रही है और आनंदातिरेक में छलक पड़ती है ।