दस दोहे (81-90) / चंद्रसिंह बिरकाली
ठंढी-ठंढी वेळका ऊपर वादळ छांह ।
रमै कूदण मोज में टाबरिया टीबांह।। 81।।
ठंडी-ठंडी बालु रेत पर बादल की छांह हो रही है। बालक बड़े आनंद में टीलों पर कुदने का खेल खेल रहे है।
लागी गावण तीज नै रळमिळ धीवड़ियां।
गोगा मांडै मोद भर टाबर टीबड़ियां।। 82 ।।
तीज के त्यौहार पर लड़कियां हिल-मिल कर गाने लगी । टीलों पर बालक आंनद में गीली मिट्टी से ‘‘ गोगा ‘‘ बनाने लगे।
तिरियां - मिरियां तालड़ा टाबर तड़पड़तांह।
भागै तिसळै खिलखिलै छप-छप पाणी मांह ।। 83 ।।
ऊपर तक भरे हुए तालों में बालक खेल रहे है। कभी दौड़ते है, कभी फिसलते है और कभी पानी में ‘छप-छप’ ध्वनि कर हंसते है।
आभै तणियो धनख लख टाबर आपोआप ।
‘ओ मामै रो डांगडो‘ - लाग्या करण धिणाय ।। 84।।
आकाश में तना हुआ इन्द्रधनुष देख कर बालक अपने आप ही ‘‘ये मेरे मामा की लाठी है‘‘ ऐसा कहकर स्वामित्व दिखाने लगे।
किरसाणां हळ सांभिया चित में आयो चेत ।
हरख भरया सै पूगिया अपणै-अपणै खेत।। 85।।
किसानों ने हल संभाल लिये है, सबकै चित में चेतना व्याप्त हो गई है और आनन्दमग्न हो कर सब अपने-अपने खेतों में पहूंच गये है।
वीजां अंकुर कूटिया अळसाया सरसाय।
हरिया-भरिया फूलड़ा फूल्या-फळिया जाय।। 86।।
बीजों के अंकुर फूट आये है, अलसाये सरसित हो उठे है और हरे-भरे फूल फूलने-फलने लगे है।
घण जाणै डूंगर खड्या सरवर नाभ मंझार।
उण में धोळा चूंखला ज्यूं हंसां री डार ।। 87।।
काले बादल ऐसे लगते है मानों नभरूपी सरोवर में पहाड़ खड़े हों, और उनमें रूई की भांति सफेद बादल हंसो की पंक्ति की तरह प्रतित होते है।
भूरा भाखर भीजीया कळमस काळा स्याह।
जाणै हाथी राज रा छूट्या रोही मांह।। 88।
भूरे रंग के सूखे पर्वत भीग कर बिल्कुल काले हो गये है और ऐसे प्रतित हो रहे है मानों राजकीय हाथी छूटकर जंगल में आ गये हो।
अंबर झूलै बादळी, धण झूलै झूलांह।
वेळां विरछां-डाळियां, हिवड़ो हिवडै़ मांह ।। 89।।
आकाश में बादलियां झूल रही है, धन्याएं झूलों पर झूल रही है, वृक्षो की डालियों पर बेलें और हृदय हृदयों में झूल रहे है।
पळ में भूरै भाखरां पळ में टीबड़ियां।
रमतो दीसै रात नै चांदो बादळियां।। 90 ।।
रात में चन्द्रमा बादलियों में रमण करता हुआ दिखाई देता है-एक क्षण तो भूरे पर्वतों पर और दूसरे ही क्षण टीलों पर ।