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दस दोहे - 3 / महेश कटारे सुगम

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1

गैलें पीटें डोडुआ, द्वार होओ हुस्यार
गेंवड़े में घुस आए हैं, आदमखोर सियार ।
(गैलें=गलियाँ / डोडुआ=डुण्डी / गेंवड़े=गाँव की सीमा)

2

ऊँच - नीच की बात तौ, उज्यारे में होत,
अब तौ अन्धयारी घिरी, कैसौ छिया छबोत ।
(छिया - छबोत=छुआ - छूत)

3

हत्यारी ई भूक कौ, पेट न भरत दिखात
तरा भोर के जगत हैं, लौलइयाँ लग जात ।
(तरा भोर=अलस्सुबह / लौलइयाँ=रात का पहला पहर)

4

लोकतन्त्र कौ देख लऔ, जी भर हमनें काम
रंधी रंधाई खीर है, सब कुत्तन के नाम ।
(रंधी रंधाई=पकी पकाई)

5

काटे सें नईं कट रई, हो गई लम्बी रात
मनौ कोउ नईं करत, है भुन्सारे की बात ।
(भुन्सारे=सुबह-सुबह)

6

होरी तौ सरगे गऔ, गोबर फाँके राख
नें अब तक मिल पाई है, ऊ खौं ऊ की साख ।

7

ऐसी भी का ज़िन्दगी, कटे ख़ुशी के पंख
रात दिना फूकत फिरें, दुख के सूखे शंख ।

8

कान खोल कें सब सुनौ, मोरौ जौ ऐलान
नें तौ कऊँ है आत्मा, नें कऊँ है भगवान ।

9

वीणा बीना में बजै, सुनत हुसंगाबाद
बाँदा नें आलाप लऔ, झाँसी गूँजै नाद ।

10

थू - थू हो रई जगत में, रए मनई मन खीज
बाँदें फिर रए आज जो, सत्ता के ताबीज ।