दस दोहे 21-30 / चंद्रसिंह बिरकाली
चूण लेण रै चाव़ में चिड़िया खोलै चांच।
भीतर सारो भूंजवै़ लूआं अकरी आंच।। 21।।
चुग्गे के चाव मे चिड़ियो के नन्हें नन्हें बच्चे चोंच खोलते है पर इतनें में ही लू की तेज लपट आकर कलेजे तक को जला डालती है और उनकी चोंचें खुली ही रह जाती है।
सांगरियां सह पाकियां लूआं री लपटांह।
खोखा लाग्या खिरणनै दे झाला हिरणांह।। 22।।
शमी वृक्षों की कच्ची-कच्ची फलियां (सांगरी) लूओं की लपटों से पक चुकी है। वे पकी हुई फलियां (खोखा) हरिणों को संकेतों द्वारा आमंत्रित कर झड़ने लगी है।
कैर लडे़ बिन पानाडां रोकै लूआं रोस।
सूण सूंसातां जोर सूं भूलै हिरणां होस।। 23।।
पत्रविहीन करील (कैर) लूओं के क्रोध को कम करने में डटे हुवे है। पर लुओं की ‘सैं-सैं’ आवाज सुनकर उनमें बैठी हुई हिरणियों के होष भुल रहे है।
बोझा बांठ सुकाविया अड़या दड़ाळा कैर।
दड़ी पड़ी हिरण्यां जठै लू बाळै किण बैर।। 24।।
छोटे बड़े सभी वृक्ष सुखा दिये गये है, केवल बड़े-बडे करील ही डटे हुए है। उन करीलों की ओट में छिपी हुई हरिणियों को ‘लू’ न जाने किस पुराने बैर के कारण जला रही है ?
पेट भार हिरण्यां बहै रह्मो न ओटो कोय।
रूआं रूआं नीसरै लूआं धुआं लोय।। 25।।
गर्भवती हरिणियों के छिपने का कोई ठिकाना नही रहा है। उनके रोम रोम से लूओं की लपटें निकल रही है।
तन पर लूआं आग सी अन्तर तिल की आग।
दो आगां री आंच में पड़ि़या प्राण अभाग।। 26।।
शरीर पर अग्नि-ज्वाला, प्यास के मारे अन्तर्दाह, इन दोनों के बीच में बेचारी हरिणियों के अभागे प्राण सुखे जा रहे है।
सूकां ताल तळाइयां फिर फिर भटका खाय।
पड़ै उठै उठ उठ पड़े ऐढ़ो किण बिध आय।। 27।।
सूखे तालों और तलाइयों में हरिण भटकते फिर रहे है, पानी की बूंद तक नही मिलती। वे प्यास से व्याकुल होकर गिर पड़ते है, फिर उठ खड़े होते है, खड़े होते है फिर गिर पड़ते है। ऐसी स्थिति में निष्चित स्थान पर कैसे पहूंचा जाय, यह एक बड़ी समस्या है।
सुवरण बरण लजावती हिरणां पीठां जेह।
तप लुआ रै ताव में तांबाबरणी तेह।। 28।।
हरिणों की जिन पीठों की चमक के सामने सोने का रंग भी लज्जित होता था वे आज लूओं के ताप से तप कर तांबे के सदृश हो गई है।
भूरा रूं भुरड़ीजिया लूआं बैरण लाय।
चटका लागै चोगिरद पड़ै डिडाय डिडाय।। 29।।
लूओं की लाय में उनके भूरे-भूरे रोम झुलस गये है, उनके शरीर के चारों तरफ लू के ‘डाम’ से लगते है और वे डिडाय-डिडाय कर गिर पड़ते है।
पान खड़कक्यां जावता कोसां छाळोछाळ।
वै सागी सुध बायरा आया जोड़ा पाळ।। 30।।
पत्तों की मरमर से चमक कर कोसों तक चौकड़ी भरने वाले हरिण प्यास के मारे सुध-बुध खोकर तालाबों के तटों पर आये खड़े है।