दस रुपये में इनसानियत / सुरेश सलिल
बिवाइयों-फटे ठिठुरते पैर बार-बार
फटी-मसकी चादर में वह समेटने की कोशिश करती
ज़िद्दी हवाओं की बर्फ़ानी धार इतनी तीखी थी
कि चादर की लपेट जितनी ज़रूरत पैरों को
उतनी ही सिर और बदन को भी
...फिर, चादर भी फटी हुई, मसकी हुई
चादर और पैरों के ये चूहे-बिल्ली के दाँव-पेंच देखता
मैं ठिठक गया उस जगह
कि तभी उस बच्ची की पारखी निगाहों ने
ताड़ ही लिया अपने सचमुच के गाहक को
और पैरों की गिरहबन्दी भूल
जुराबों के जोड़े दिखाने में व्यस्त हो गई
(जो सचमुच मेरे पैरों को ठण्ड से राहत दिला सकते थे ।)
मोज़े मेरे पास पहले से थे, और जूते भी
जिन्हें मैं कसे हुए था अपने पैरों में,
फिर भी टाल नहीं पाया उसकी आँखों
और होंठों से फूटता अनुरोध
और जेब से निकालकर बटुआ
दस का एक नोट उसकी ओर बढ़ा दिया
उसने भी छाँटकर जुराबों की सबसे उम्दा जोड़ी
पोलिथिन की थैली में डाल मेरी ओर बढ़ा दी
मैंने भी बढ़ा दी अपनी चाल
इनसानी गर्मजोशी से चेहरा चौड़ाए-सीना फुलाए...
और चौड़ान-फुलान के दरमियान
तक़रीबन भूल ही गया
कि चादर की लपेट से खुल-खुल जा रहे होंगे
कभी पैर, कभी पेट, कभी सिर...