दस / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
चाह कर भी किसी से कहूँगा नहीं
जिंदगी की कहानी अधूरी रही
रात सोचा था चन्दा से कह दूँ सभी
कहने बैठा तो ये चाँद रोने लगा
और बोला कि अब मैं सुनुगाँ नहीं
दर्द की ए कथा, दर्द होने लगा
टिमटिमाने लगी तारिकाएँ सभी
कान को बंद कर ऊँघने लग गई
और कहने लगी नासमझ गा रहा
मर्सिया बैठ कर, बेदना जग गई
फूल पर जो मिला मस्त मौला भ्रमर
चूमते-से काली को थिरकते हुए
सच कहूँ तो बहारों में सब कुछ मिला
खो गए हम, कुसुम थे महकते हुए
पास बैठा भ्रमर मुझसे कहने लगा-
न फरहाद है और न शीरी रही
चाह कर भी किसी से कहूँगा नहीं
जो उठा है गिरा वो नहीं कौन है ?
रह गया है कहाँ जग अधूरा नहीं
स्वप्न किसको लगा हाथ है मूर्त बन
स्वप्न किसका रहा है अधूरा नहीं
देखता हूँ जिधर, बस! अधूरा जगत
साध किसकी न जग में अधूरी रही
चाह कर भी किसी से कहूँगा नहीं
प्राण से प्राण को, देह से देह को
मन मिलाने की कोशिश करता रहा
पंख फैला के पंडुक का जोड़ा सहज
साध लेकर मिलन का तड़पता रहा
व्याध के बाण से बिंध गया इस कदर
साध को आँख में बस! लिए मर गया
प्रेम की आग तीखी है जल जाओगे
रात किसकी न जग में अँधेरी रही
चाह कर भी किसी से कहूँगा नहीं