भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दहकती रेत पर / माधव कौशिक
Kavita Kosh से
दहकती रेत पर सब कुछ चनाब जैसा था
असल में प्यार का ज़ज़्बा सराब जैसा था ।
सुबह से शाम तलक बांचते रहे उसको
सुनहरी धूप का चेहरा किताब जैसा था ।
चुभा तो पांव में लेकिन हुआ जिगर छलनी
तुम्हारे बाग़ का कांटा गुलाब जैसा था ।
उसे मैं ज़ेहन के जंगल में किस जगह रखता
वो एक शख़्स जो परियों से ख़्वाब जैसा था ।
कोई तो बात थी हर शख़्स लाजवाब रहा
मेरा सवाल भी शायद जवाब जैसा था ।
अमीरे-शहर के सीने में कोई सांझ न थी
मगर ग़रीब का दिल तो नवाब जैसा था ।