दहकते पलाशों में / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही
ये किसके स्वगातम् में
व्यस्त से हैं
तरु-लताएँ-द्रुम?
निखरती
रूप की आभा
उषा के इन उजासों में
बिखरता रंग किसका है
दहकते इन पलाशों में?
ये कलरव-गान
नर्तन तितलियों के
भौंर के गुंजन
पुलकते
तरु-लता-पल्लव
विमुग्धित हो रहा तन-मन
किसी के गाल पर रोली
किसी के
भाल पर कुमकुम।
नज़र भर
देखने तो दो
हटा लो आवरण क्षण भर
किसी के पाहुने
यों रोज तो
आते नहीं घर पर
भरे मधु कलश महुओं के
उड़ी फिरती हैं कचनारें
कहीं सौ-सौ निमन्त्रण हैं
कहीं पर मौन मनुहारें
चटक किलकारियों ने
तोड़ कर
बिखरा दिये गुमसुम!
यह मौसम है
मदिर मधुमास का
उल्लास का पावन
छलकते
रूप-रस-मधुगन्ध से
पुलकित हुआ कन-कन
बरसने दो रँगों के मेघ
अम्बर में सघन छाए
मचलते अधर पट पर
गीत के छौने उतर आए
वसन्ती तन
वसन्ती मन
वसन्ती हो गए हम तुम!