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दहशत/ सजीव सारथी
Kavita Kosh से
जब भी राहों पर चलती है वो,
दहशत दिल में रखती है वो,
विश्वास के मंदिर ढह गए,
भरोसे उठ गए सारे,
अपने साये से भी अब तो डरती है वो,
खिल कर हँसती नहीं,
खुल कर मिलती नहीं,
चुपचाप खामोश फकत अब रहती है वो,
हर तकती निगाहों में उसे,
एक भूख सी नज़र आती है,
सर से पाँव तक बदन ढांपे रखती है वो,
वो जो उड़ना चाहती थी खुले आसमान में,
सिमटी सहमी सी वो रहती है अब,
जिसे नाज़ था अपने शहर, अपने वजूद पर,
खुद से शर्मसार वो लगती है अब
कैसे यकीं दिलाओगे उसे कि
महफूज़ है वो,
ख़बरों की काली सुर्खियाँ,
रोज पढ़ती है वो.