जलाए नए दिये फिर भी न ई कालिख-सी छा ई
ख़ुशी मेरे आंगन है कि है ऐसे क्यों विलाप ब न आ ई
ऐसे आ गया दहेज ज़माने में
बाप भी बिक चुका हैं बेटी की विदाई में
आसुंओं की मत पूछो
हालत
रोना भी पड़ता हैं सुर शहनाई में
घर किसी का मत पूछो हालत दरवाज़े भी रो देते हैं
दहेज एक दानव है, इस दानव में बेटीयों को खो भी देते हैं
बड़ी मांग होती सगाई में, गाड़ी, बंगला आदेश में
बाप पहले कर्ज़ में था, माँ भी अब डुब चुकी क्लेश में
दहेज दानव का रूप ले लिया, खा गया अनेक वेश में
बाप शादी में भूखा ही सोता, बेटी परणाई परदेश में
मांग सुनते ही उस मालिक की याद पर याद आई
मैं तो जनक बना वह दशरथ की याद आई
ऋणी अयोध्या थी वह जनक
सुता अवध में आई
राजा जनक तो आज मैं बना राजा दशरथ की कमी खली आई
कैसे ढुँढू उस राजा को, मेरी आँख भी भर आई
कोख मेरी माताओं की अलग थी
पहले मैं उसका पिता था, अब उसी पिता के घर वह बेटी वापस आई
कुछ दिनों यहाँ बागों की कोयल थी, अब वह अयोध्या की तुलसी बन आई है
यह तो एक सपना ही था, फिर मेरी आँख भर आई
बिना दहेज के कैसे होगी बेटी पराई
दंश अब तो सांप बन चुका है
हर घर में यह कहानी आई
जब दुल्हे कि घोड़े पर बारात और निकासी निकल वाई
उसी समय उस बाप का पहले चुल्हा फुंका
कन्या दान करने से पहले प्राण दे रहे थे गवाही
देखो छीका भी टुटा और झांकी निकलवाई
पहले मटका टुटे
फिर आंगन में दिए जलाए
माँ ने आँख के आंसू झरोखे पर सुखवाए
वो बाप पर दहेज का दंश चुभ रहा था
बाहर से ख़ुश था
और अन्दर चिंता चिता बनाए
बिना दहेज के अब कैसे बेटी होगी पराई
आंख भर आई , वह आंखों में समाई
दहेज की चर्चा करते अपने समधी संग आगे आई
तुम्हारी बिटिया भी अभी बड़ी हो रही
ऐसे करोगे लड़ाई
दहेज के दंश में आंगन नहीं जलता
जलती है माँ बाप की कमाई
सुदखोरो का ब्याज दिन रात चलता
कैसे करें कमाई जिते जी बीमारी खाई
रात को सोते हैं कैसे नींद आई
एक घूंट भी अगर पानी पीते
वो हलक में जान आई
खत्म करो इस बीमारी को
पहले ही लिंगानुपात की कमी आई
खत्म करो तो इसे जल्दी करना
वरना एक तरफ़ विदाई
दूसरे पल में भरे बाज़ार में बाप की निलामी आई