भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाँत का टूटना / अरुण देव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ से टूटा था दाँत
जीभ बार बार वहीं जाती सहलाती
बछड़े को जैसे माँ चाटती है
 
वह जगह ख़ाली रही
होंठ बन्द रहते
नहीं तो उजाड़ सा लगता वहाँ कुछ
 
गर्म ज़्यादा गर्म यही हाल ठण्डे का भी रहा
स्वाद जीभ पर बेस्वाद फिरता
कौर कौन गूँथे ?
 
जहाँ से टूटा था दाँत वहाँ एहसास के धागे अभी बचे थे
मशीन से उन्हें कुचलकर तोड़ दिया गया
 
दाँत लग तो गए हैं पर
जीभ अभी भी वहीं जाती है
क्या पता स्पर्श से यह जी उठे
 
दाँतों के बीच उन्हीं जैसा एक दाँत है, पर सुन्न
जैसे कोई कोई होते हैं आदमियों के बीच ।