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दाँत / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
घने किसी के, दूर किसी के, होते कुछ के छोटे दाँत,
कुछ के पतले, कुछ के चौड़े और किसी के मोटे दाँत।
तरह-तरह के आड़े-तिरछे, जाने कैसे-कैसे दाँत,
फिर भी साफ़ सदा रखते जो उनके मोती-जैसे दाँत।
है पूरी बत्तीसी ग़ायब, दादाजी के नक़ली दाँत,
दाँतों-तले दबाते ऊँगली, होती जब अचरज की बात।
दाँत गड़ाना जिसने चाहा, झटपट हुए इकट्ठे दाँत,
छुड़ा दिये छक्के वीरों ने, अब दुश्मन के खट्टे दाँत।
हाथी के मुँह में जमते हैं सच में, बड़े निराले दाँत,
खाने के हैं अलग, अलग इनके दिखलाने वाले दाँत।
ग़ुस्से में जब हवलदार ने कसकर अपने पीसे दाँत,
दाँत दिखाकर माफ़ी माँगी, पकड़ी गयी चोर की जात।
एक-एक कर डब्बू जी के, टूटे सभी दूध के दाँत,
टेढ़े निकलेंगे या सीधे, परेशान रहते दिन-रात।