भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दांपत्य / वी०एम० गिरिजा
Kavita Kosh से
फिर
ठंडी फर्श पर
औधीं लेटकर
मैं बनी हिम का ढेर ...
तुम सो रहे हो, कुछ दूर
नग्न
बरसे बदल की तरह
आश्वस्त ।
मैं उस धरती की तरह
बिजली से फाड़ दी गयी हो
जख्मी...
मिट्टी की परतों के अन्दर
शोरगुल, हँसी,
यौवन, स्नेह
वह क्षण जब तुम पहली बार शरीर में समा गये...
क्या ये सब झूठ हैं ?
ठंडी फर्श पर
नग्न शिला-मूर्ति सी
खून से लथ-पथ काली चाँदनी-सी
मैं ।