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दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ / 'ताबाँ' अब्दुल हई
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दाग़-ए-दिल अपना जब दिखाता हूँ
रश्क से शम्मा को जलाता हूँ
वो मेरा शोख़ है निपट चंचल
भाग जाता है जब बुलाता हूँ
उस परी-रू को देखता हूँ जब
हो के दीवाना सुध भुलाता हूँ
मुझ को देता है गालियाँ उठ कर
नींद से जब उसे जगाता हूँ
जब मुझे घेरता है ग़म ‘ताबाँ’
साग़र-ए-मय को भर पिलाता हूँ