भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाग़ दिल चमका तो ग़म पैदा हुआ / जोश मलसियानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दाग़ दिल चमका तो ग़म पैदा हुआ
ये अन्धेरा सुब्ह-दम पैदा हुआ

मैं हूँ वो गुम-गश्ता-ए-राह-ए-तलब
मेरी हस्ती से अदम पैदा हुआ

हो गई हर एक बेशी में कमी
जब ख़याल-ए-बेश-ओ-कम पैदा हुआ

उन के आने की ख़ुशी क्या चीज़ थी
इस ख़ुशी से और ग़म पैदा हुआ

मय-कदे में शैख़ भी आया अगर
गर्दन-ए-मीना में ख़म पैदा हुआ

हुस्न में तख़्लीक़ का जौहर भी है
उस के मैं कहने से हम पैदा हुआ

याद उन की यूँ रफ़ीक़-ए-राह थी
हर क़दम पर हम-क़दम पैदा हुआ

क्या कहें हम इस अदा-ए-ख़ास को
हर करम से इक सितम पैदा हुआ

मर्ग का कुछ भी न था ऐ 'जोश' ग़म
उन के वादे से ये ग़म पैदा हुआ