दाग-धब्बे / नरेश सक्सेना
दाग-धब्बे
साफ-सुथरी जगहों पर आना चाहते हैं
जहाँ कहीं भी कुछ होने को होता है
भले ही हत्या होनी हो किसी की
दाग-धब्बे प्रकट होने को आतुर हो उठते हैं
और जब कोई नहीं आता आगे
हत्यारों के खिलाफ, गवाही देने
दाग-धब्बे ही आते हैं
त्वचा तक सीमित नहीं होता उनका आना
वे स्मृतियों और आत्मा तक आते हैं
हादसे की तरह
और हमारे सबसे प्रिय चेहरे, बस्तियाँ और शहर
धब्बों में बदल जाते हैं
जहाँ जहाँ होता है जीवन
हवा, पानी, मिट्टी और आग जहाँ होते हैं
धब्बे और दाग
जरूर वहाँ होते हैं
वे जीवन की हलचल में हिस्सा बँटाना चाहते हैं
वे बच्चों को देते हैं चुनौती
कि हमारे बिना जरा खेल कर दिखाओ
(बच्चे तो अच्छी तरह जानते हैं
कि जिनके हाथों, किताबों और कपड़ों पर
लग जाते हैं स्याही के दाग
वे जरूर पास हो जाते हैं)
जीवन से जूझते जवान हों
या बूढ़े और बीमार
दाग-धब्बे किसी को नहीं बख्शते
महापुरुषों की जीवनियों में
उनके होने का होता है बखान
कौन से बचपन पर
यौवन पर या जीवन पर वे नहीं होते
हाँ कफन पर नहीं होना चाहते
दाग-धब्बे, मुर्दों से बचते हैं
गंदी-गंदी जगहों पर कौन रहना चाहता है
दाग-धब्बे भी साफ-सुथरी जगहों पर
आना चाहते हैं।