भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दाग / राजेश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी कमीज़ की आस्तीन पर कई दाग हैं ग्रीस और आइल के
पीठ पर धूल का एक बड़ा सा गोल छपका है
जैसे धूल भरी हवाओं वाली रात में चाँद
मैं इन दागों को पहनता हूँ
किसी तरह की शरम नहीं काम के बाद वाली तसल्ली है इन दागों में
कि किसी दूसरे की रोटी नहीं छीनी मैंने
अपने को ही खर्च किया है एक एक कौर के लिए

मेरी चादर पर लम्बी यात्राओं की थकान और सिलवटें हैं
मेरी चप्पलों की घिसी एड़ियाँ और थेगड़े
इस मुल्क की सड़कों के संस्मरण हैं
मैं अपनी कमीज, अपनी चादर और अपनी चप्पलों पर लगे दागों को
सर उठा कर गा सकता हूँ
हर बार इतना आसान नहीं होता अपने दागों के बारे में बताना
कितने दाग हैं जिन्हें कहने में लड़खड़ा जाती है जबान
अपने को बचाने के लिए कितनी बार किए गलत समझौते
ताकतवार के आगे कितनी चिरौरी की
आँख के सामने होते अन्याय को देख कर भी चीखे नहीं
और नज़र बचा कर चुपचाप, हर जोखिम की जगह से खिसक आए

सामने दिखते दागों के पीछे अपने असल दाग छिपाता हूँ
और कोई उन पर उंगली उठाता है तो खिसिया कर कन्नी काट जाता हूँ।