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दाग / सजीव सारथी
Kavita Kosh से
चन्द्रमा के चमक की हँसी उड़ाता,
वह बदनुमा ‘दाग’-
सतरंगे शहर की,
एक फुटपाथ पर,
वहाँ,
कूड़े के पास,
वह लाश पड़ी है,
नही,
लाश नही,
अभी तो नसों में ज़हर बाकी है,
अभी तो साँसों में,
राख़ काफ़ी है,
मगर,
भूख के बिछौने पर लेटे,
अभाव की चादर ओढ़े,
उस जर्ज़र शरीर के,
चेहरे पर लगी,
उन दो जगी आंखों को ,
इंतज़ार है तो बस,
एक अनंत सपने का,
या फिर मौत की नींद का।