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दाढ़ी / हरिऔध
Kavita Kosh से
बेबसी तो है इसी का नाम ही।
पड़ पराये हाथ में हैं छँट रही।
प्रोंच कट क्या सैकड़ों कट में पड़ी।
आज कितनी दाढ़ियाँ हैं कट रही।
जब रहा पास कुछ न बल-बूता।
जब न थी रोक थाम कर पाती।
जब उखड़ती रही उखाड़े से।
क्यों न दाढ़ी उखाड़ ली जाती।
बाढ़ जो डाल गाढ़ में देवे।
तो भला किसलिए बढ़ी दाढ़ी
जो चढ़ी आँख पर किसी की तो।
क्यों चढ़ाई गई चढ़ी दाढ़ी।