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दादी की हुकटी / सुन्दर कटारिया

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चाची ताईयां का ठहाका छूट्टया करता
दादी की हुकटी मै धूम्मा उठ्ठया करता।
हुकटी छोटी थी पर जुलम थी
पतल़ी सी नैह, पीत्तल़ की तल़ि ऊप्पर चिलम थी।
दादी हुकटी नै रोज धोत्ती, लत्ता मारती
नींब्बू राख तै मांज कै निखारती।
धर कै तम्माखु चुगल धर लेती
हारे की आग तै हुकटी नै भर लेती।
दादी कदे हुकटी नै झूठी नही करती
नैह नै औढ़नी तै ढक कै जिब घूंट भरती।
हुकटी के बिना दादी अधूरी थी।
कदे दादा का ख्याल ना करया जितनी हुकटी जरूरी थी
गाम मै होता कीरतन चै कोये गीत गवात्ती
दादी की हुकटी न्यारी गुड़गुड़ाती।
एक बै तो मुहं काण गयी तो हुकटी नै धर लेगी
ग्होज मै थोड़ा सा तम्माखु भर लेगी।
रिस्तेदारी रोण लागरही थी
अर दादी आग ट्होण लागरही थी।
दादी बीमार हुई जिब भी गोल़ी ना खात्ती
पड़ी पड़ी बस हुकटी नै लखात्ती।
दरअसल डाक्टर कहग्या था जै जिन्दगी सै जीणी
तो आज के बाद हुकटी ना पीणी।
पर दादी का मन नही मान्या एक रात हुकटी भरली
हुकटी आज भी टांड पै धरी सै, दादी कद की मरली।