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दादी माँ फेरती है वक्त को / मदन गोपाल लढ़ा

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देखते ही देखते
कितनी बुढ़ा गई है
दादीमाँ।

कल की तो बात है
दादीमाँ गायें दुहकर
दूध से भर देती थी
बाल्टियां
गायें नीरना
बछड़े बांधना
गोबर थापना तो
उनके लिए
कोई काम ही नहीं थे।

चूल्हे पर
तवा टेकने के बाद
जीमने वाले ही धापते थे
दादीमाँ नहीं।
ठाकुरजी के मंदिर जाना भी
कब भूलती थी दादीमाँ
प्रसाद के लालच में
अंगुली पकड़ कर
चल पड़ते थे हम भी।
देखते ही देखते
उनके घुटनों ने जवाब दे दिया
धुंधलाने लगी
अनुभवी आंखों की ज्योति
लाठी का सहारा
ज्यादा पावर का चश्मा
पहचान बनने लगे दादीमाँ की।

आजकल
खड़े होकर चलने की जगह
घिसट कर ही खिसक पाती है
दादीमाँ
गाय-बच्छी
चुल्हा-चौका
मंदिर-देवरे
समा गए हैं उनकी कथाओं में।

यूं लगता है
माला नहीं
वक्त को फेरती है
पल-पल बुढ़ाती दादीमाँ।