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दादू का लाड़ला / हरेराम बाजपेयी 'आश'

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जब भी वह आसपास नहीं होता है,
मन को क्यों विश्वास नहीं होता है॥1॥
पर कटे परिन्दे की तरह जैसे तब,
घोंसला ही मेरा निवास होता है।

तुझको ढूंढा कहाँ-कहाँ मैंने,
सबसे पूछा यहाँ वहाँ मैंने
बोली चुपचाप पुष्प की पाँखुर
तुझको भेजा जहाँ-तहाँ मैंने॥2॥

तुझको ढूँढा चिड़ियों की चहक में मैंने
तुझको खोजा फूलों की महक में मैंने,
अनमनी आम की अमराई भी लगी मुझको
पूछा झूले की रस्सियों से मैंने॥3॥

घर के कोने-कोने है निहारते तुझको
द्वार भी बार-बार है पुकारते तुझको
टन-टन आरती की सुनाई नहीं देती,
प्रसाद पूजा का अब कौन दे मुझको॥4॥

हर जगह आवाज तेरी आती लगती,
दादू-दादू की रट लगाती लगती,
शानू भैय्यु ओ लादले अभ्यू
तेरी दादी भी अब नहीं कहानी कहती॥5॥

कुछ भी करने में मन नहीं लगता
सुना सुना-सा सबेरा है लगता
लिखना चाहूँ तो लेखनी रुकती
कहना चाहूँ तो शब्द सिसकता लगता॥6॥

मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता
सबसे छोटा सभी का दुलारा होता
मिलन का मूल्य विरह से है बढ़ता
बिन दिखा दर्द सदा न्यारा होता॥7॥

दो कदम चलना क्या सीख गया शानू
दौड़-भाग करना भी सीख गया शानू
नाथद्वारा-द्वारका ऋषिकेश हरिद्वार
देहरादून बनारस, इलाहाबाद घूम गया शानू॥8॥