दाना माँझी / विकास पाण्डेय
जर्जर हो गया है, गल गया है,
सड़ गया है सामाजिक तन्त्र।
बदबूदार हो चुकी है यह व्यवस्था।
करुण क्रंदन कर रहे है
गली के कुत्ते,
हर एक का मार्ग काट रहीं
काली बिल्लियाँ,
किन्तु, आज संवेदनाओं को जगाने का
हर प्रयास निष्फल है।
तुम्हारी बाँहों में
मृत पड़ी है मानवता
या संवेदना या फिर सहानुभूति।
अर्धांगिनी का नहीं
तुमने कंधे पर रखा है तन्त्र का शव।
चिकित्सा तंत्र का,
जनतंत्र का, पुलिस तंत्र का,
प्रशासनिक तंत्र का,
लोकतान्त्रिक राजे-राजकुमारों का।
पक्षी, पशु, मेंढक, चींटियाँ सब
आतुर हैं सहायता को।
आज तो गिरगिट भी बार-बार
गर्दन घुमा कर देखता है
तुम्हारे चट्टानवत कंधे को।
बस मानवों की भीड़
खड़ी है अकर्मण्य।
पत्थरों में नहीं होती कोई संवेदना।
तुम्हारे अश्रु के ताप से
समीपस्थ लताएँ धू-धू कर के
जल जाना चाहती हैं।
पुष्प बिखर जाना चाहते हैं
तुम्हारे पग में।
तुम तो माँझी हो,
पार उतारने वाले हो,
पर तुम्हारी नाव कौन खेवेगा!
गरीब को करनी पड़ती
एक कंधेवाली शव यात्रा।
ओह! सत्तर वर्षीया भारत माँ के
आँसू बह रहे हैं, तुम्हारी
बारह वर्षीया पुत्री की आँखों से।