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दाब में धूप को दबाए / केदारनाथ अग्रवाल

दाब में धूप को दबाए,
सम्पूर्ण जिस्म सूरज का छिपाए,
ताप और दाब से डसे, सर्वांग परितापित सताए,
सिर पर छत्र की तरह छाए बादलों को देखकर
शाप से मुक्त हुए जैसे लोग
आप-ही-आप रोमांचित हुए हरसाए
पाँव की पीर पाँवों से निकल गई,
पंथ और पंथी की प्रीति
दृढ़ से दृढ़तर
अधिकाधिक हुई नई;
उमड़ें-बहें सींचें
चलते चरण चित्त की चंचल चाल से चारों और चले,
भूमि को चूमते, छोड़ते पद चाप,
चाल का चक्कर पूरा करने में लगे, दिखाई दिए भले;
हाथ ने हाथ का साथ दिया,
कर्म का पुनरुद्धार दोनों ने मिलकर किया;
ताप और तप के, कल के तपे पड़े,
आज के नए नरम मौसम में नरमाए,
देह की डाल-डाल पर इनके पात और पक्षी चहचहाए;
फूल और फूल की आँखें
रंग और रूप के दर्शन से खुलीं,
गंध और आनंद से वृंत-वृंत पर अपलक तुलीं
मुझे भी इन बादलों ने छाप-छाप-छाप लिया
मैने इनसे,
और इन्होंने मुझसे
आह्लादित-विभोर-आत्म-संलाप किया

रचनाकाल: ०९-०६-१९७६, मद्रास