दाम्पत्य आनंद / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
भवो विवाह अर्द्ध गत यामिनि। कोहवर चले कुंअर औ कामिनि॥
बहुत कोलाहल सखि सब करहीं। नाक कान परसहिं अरु टरहीं॥
वीरा गेंडुर गेंद पलासी। भाजहिं मारि करहिं पुनि हासी॥
जगत चार विधि वत सब करहीं। कुंअर रसिक पर अति रस ढरही॥
तीन पहर रजनी चलि जाई। तबहिं सखिन कस कीन उपाई॥
विश्राम:-
द्वार किवार लगायके, आपु सवै विलगान।
दम्पति की मनसा हुती, प्रभु पूरन किहु आन॥241॥
चौपाई:-
प्रथम समागम लज्जित नारी। चितव परस्पर लोचन चारी॥
परवश परी त्रास अति करई। जैसे मृगी व्याघ्रवश परई॥
जनु पक्षी पिंजरा गहि डारी। फिरि हेरत तास दुवारी॥
तेहि क्षण मुख तंबूल दिहु डारी। आमरण चीर लागु तेहि भारी॥
सूखत अधर वदन पियराई। वार वार पुनि आव जम्हाई॥
विश्राम:-
कम्पित अंग प्रस्वेद अति, जंघ युगल थहराय।
उरध सांस भौ उरध अति, वचन वकति नहिं जाय॥242॥
चौपाई:-
ताहि प्रसाद कुंअर अस कीन्हा। पुलकित हृदय लायधनि लीन्हा॥
वरवश कुंअरि सेज पर आनी। दूनो मिलिमै एकै प्रानी॥
जो कछु आह जगत व्यवहारा। का बरनो जानत संसारा॥
सुरति अंत सुख निद्रा आई। शिथिल शरीर अलसता आई॥
प्रात कुंअर उठि बाहर आऊ। जाय सखिन तब कुंअरि जगाऊ॥
विगलित सेज कुंअरि कुम्हिलाई। भूषण अंग अंग अरुझाई॥
विश्राम:-
अभरन वसन अरुझि गे, विकल कनक को रेख।
प्रात पुहुप के माल सम, सुन्दरि को तन देख॥243॥
चौपाई:-
पुनि करि यतन कुंअरि नहवाई। अमरन वसन साजि पहिराई॥
जाधर प्राणमती वरनारी। ता घर चलि भौ मिलन कुमारी॥
प्राणमती अगुमन पगधारी। प्रेम परस्पर दिहु अंकवारी॥
कुशल समाज वहू विधि कियऊ। आसन अर्द्ध आनि पुनि दियऊ॥
प्रीति परस्पर कवन वखानी। इ दूनो एक माय जनु जानी॥
विश्राम:-
मथन सिन्धु सुर कीन्हेऊ, रम्भा लक्ष्मी पाव।
विछुरन भवो तबाहिं ते, अव जनु भवो मेराव॥244॥