दाम्पत्य / राजकमल चौधरी
हम दू व्यक्ति अर्थात्
हम आ अहाँ
जौंआँ नेना छी, कतहु विपरीत
आ कतहु
अन्ध विवरगामी द्विमुख साँप जकाँ
समर्पित, सभय आ
सप्रीत
कतहु विपरीत।
हम चिनवारसँ उठैत साँझक कारी धुआँ
देखि रहल छी जे
एहि धुआँक ऊपर, ओहि पार
अन्हारक नील सागरमे
उगल अछि चान
अहाँ कहइ छी-होइत अछि अनुमान
पानि नहि बरिसत
सुखायल गहूमक गर्भान्ध सीस
हरिअर-पीअर नहि होयत
नहि बरसत
पानि नहि बरिसत
हम अहाँक कहब-सुनब
नहि दइ छी ध्यान
होइत अछि अनुमान
चिनवारसँ उठैत ई कारी धुआँ
आँखिक पकोट पर पसरल ई अवथाहल अन्हार
हमरा सभक एहि द्विमुख साँपकेँ
अन्ध विवर घरि
पहुँचय नहि कखनहुँ
पहुँचय नहि देत
साँप के विवर धरि
कविता के स्वर धरि
भनसाघरक ओसार पर अहिना
बनाओल रहत काजरक
अटका-मटका
नैना-जोगिन
अहिना धुआँ अन्हारक महाजालमे
कबइ माछ जकाँ
छटपटाइत रहि जायत अहाँक
कविता
अर्थात्
हम दू व्यक्ति, हम आ अहाँ-
स्वरमय
अक्षरमय
नहि भ’ सकब
जौंआँ नेना छी हम आ अहाँ
किन्तु,
एकटा अन्धविवरगामी द्विमुख साँप
हमरा सभक हृदयमे
हृदयक संशयमे
व्याप्त अछि
विपरीत होइतहुँ हमर आ अहूँक
परम आप्त अछि।
(मिथिला दूत, राज कमल विशेषाँक: फरवरी-अप्रील, 1968)