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दाह नहीं है, शीतलता है / कृष्ण मुरारी पहरिया

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दाह नहीं है, शीतलता है
मन छाया-छाया चलता है

सभी हौसले पस्त हो गए
लड़ने के, बदला लेने के
मौलिकता के, चमक दमक
अपनी नाव अलग खेने के

क्रान्ति और उकसाने वाली
भाषा का नाटक खलता है

अब तो शान्त झील जैसा सुख
अभ्यन्तर में रचा-बसा है
विस्मृति में इतिहास पुराना
कब सर्पों ने उसे डंसा है

उसके भीतर झिलमिल-झिलमिल
राग भरा सपना पलता है