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दिए / नीना कुमार
Kavita Kosh से
बुला रही है चाँदनी, हौले से दस्तक दिए
के बेपायाँ अंधेरों में जलेंगें, कब तक दिए
बेदाग़ दरख्शां हैं सबके महल-ए-आरज़ू
के ज़ख्म-ए-हसरताँ, कब के हैं ढक दिए
ज़र्द ज़र्द सी किताबें, ये ज़र्द से शजर
बदलते मौसमों ने हैं कैसे सबक दिए
बेसब्र हो रहा था पैमाना-ए-दिल
कुछ बूँद लहू के यूँ ही छिटक दिए
उदास आज क्यूँ तेरी ज़ात है; ये कह-
दो बूँद आंसू भी हँस कर चमक दिए