दिक् गीत / गिरिजाकुमार माथुर
स्याह अंतरिक्ष में पृथ्वी के घूमते महागोल की विराट छबि, जिस पर क्रमशः द्वीपो-महाद्वीपों के धब्बे दृष्टि-पथ में आते हैं। बीच में नीली खरिया से पुती हुई सिंधु-रेखाओं की चमकीली झाँइयाँ दिख पड़ती हैं।
विराट गोल के आसपास ठंडी भाप जैसा आसमानी धुआँ शून्यों में कोसों तक मंडलाकार उठता दिखाई देता है। यह धूमावरण ऊपर-नीचे उच्छ्वासित हो रहा है। दूर से ध्रुवों की महाकार हिमटोपियाँ चाँदनी की तरह चमकती हैं और हवा, नमी तथा फिसलते बादलों से प्रतिबिम्बित धूप के कारण पृथ्वी अत्यंत चमकीली, नीला आलोक देती वर्तुल पिंड लगती है।
अनन्त महाकाश में दमकते हुए असंख्य नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह तथा सूर्यों को समेटे अनगिनती आकाशगंगाओं, नीहारिकाओं और द्वीपविश्वों के चमकदार, विराट पहिए घूम रहे हैं। सृष्टि की इस निस्सीम परिधि की एक नामहीन कोर पर पृथ्वी अपने सीमित जीवन और जीवन-पद्धतियों को गोद में छिपाए हुए, निःशब्द चकरी-सी तैर रही है।
अंतरिक्ष का दिव्य संकेत करती हुई मंदशील संगीत-रचना, जिसमें त्वरा, लव-तरंगों की लक्षांशों में कंपित झनकार सुनाई पड़ती है। तरंगों के तीव्र उतार-चढ़ाव और उन्नयन-विलयन के बीच तार-स्वरों में गूँजती किसी दूरागत स्फोट-संगीत की बारीक ध्वनियाँ आती हैं जैसे-नीहारिकाओं के बाह्य अंतराल से पृथ्वी को कोई परिचयात्मक रूप से पुकार रहा हो:
पृथ्वी-
पृथ्वी-
पृथ्वी-
चमकीली, गेहुईं, सिंदूरी, नीलाम्बरी
क्षौम-मुखी, धनधवला, रेखांकित, साँवरी।
पृथ्वी-
उदित ग्रह-नभों में होती वह हेमानी
छिटका कर अपनी गोरोचन भूमानी
पृथ्वी-
फैला आयामहीन, नामहीन दिक् कराल
काल की अनावृत अलकांत का अभंगजाल
तेज-सूक्ष्म, नेतिकाय, सृष्टिपरिधि, निराकार
बहती है वह अदृश्य अपजल में निराधार
पृथ्वी-
कोटि अग्नि-बुदबुद से नील, पीत, रक्त सूर्य
शब्दहीन बजते उदयास्तों के काल-तूर्य
विश्व हैं चँदोवे, मोरपंख आदि अंधकार
जन्म शृंखला अनन्त, जीवन के अलख द्वार
पृथ्वी-
पृथ्वी-
पृथ्वी-
-पृथ्वी अब कुछ निकट आकर वृहदाकार होती जाती है। उसकी सुडौल, वृत्ताकार परिधि-रेखा असम और विच्छिन्न हो रही है और वर्तुलाकार विशाल उभार फैल कर आगे का समस्त आकाश ढकता जा रहा है। जो अभी शून्य में सिर के ऊपर चमक रही थी वह जैसे उछलकर विराट दीवार-सी सामने आती जा रही है। गोलक के आसपास नीले और नारंगी गोटे की चौड़ी किनारियाँ-सी चमक रही हैं। महाद्वीपों के चपटे, पूँछदार और डमरूनुमा मानचित्र स्पष्ट दिखने लगे हैं, धूमावरण अधिक नील हो रहा है और चिपककर लटके हुए जलसिंधु श्यामल:
हल्दी के गोटे में देहभरी लालिमा
आरक्त मुख पर धूप-छाँह की परिक्रमा
गोल कोम आरसी को आँज रही नीलिमा
ओ शोभा छुई हुई गंधवती गोलमा।
पृथ्वी-
पूजी हुई गोदी में धातु रँगे वनफूल
द्वीपों के शिशुओं पर स्पप्न सलोना दुकूल
सिंधु पालनों की हिलकोरों के पड़े झूल
कल्पों की जागृतियाँ, कल्पों की धुंध भूल
पृथ्वी-
फूलों से जीव उदित होकर झरे जाते हैं
कोटि पीढ़ियों के छाप-रंग उड़े जाते हैं
जितना ही भरता है नूतन का क्रम अबाध
उतने परिधान और नये नये आते हैं
कितनी अपरिमित है प्यास यह नयेपन की
रस की यह कथा कभी पूरी ही न पाती है
केसर संस्कृतियों की पीत भाप रेखा सदा
चाक की परिधियों से निकलती, लौट आती है
पृथ्वी-
महत्-छुद्र क्रम से उतरा विराट अनुपात
वस्तु की सरणियों पर लघु-विशाल चरणपात
निकषहीन सत्यों से बँधा सभी अर्थभोग
सुख है प्रयासनिष्ट, व्यथाबोध जन्मजात
पृथ्वी-
पृथ्वी-
पृथ्वी-
सीमित अस्तित्व-वृंत, सीमित हैं देशकाल
सीमित संदर्भ सभी व्यक्ति, राष्ट्र, तर्कजाल
शक्ति, स्वार्थ, संप्रदाय, प्रभुताओं के ललाट
सत्य अनेकांत सिद्ध, सत्य चेतना विराट
पृथ्वी-
अंतिम न कोई पक्ष, पूर्णशेष परिणाम
घटना, वस्तु, तथ्य नहीं परिणतियों के विराम
धारावाह क्रम का इतिहास एक आयाम
हम सब हैं साक्ष्य, प्रक्रिया विराट अविराम
पृथ्वी-
पृथ्वी-
पृथ्वी-