भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिगदिग थैया लड़ेलड़े / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिगदिग थैया लड़ेलड़े,
काज करक अछि बड़े-बड़े।
लड़िते चललहुँ जेँ सय डेग,
बढ़िते चल जायत ई वेग।
मा, मामा, बाबा, सब बोल,
सिखलहुँ, करइत छी अनघोल।
दौड़ि चलब नहि, लागत ठेस,
घूमू सबतरि देश-विदेश।
पहुँचब घर-घर गबइत गीत,
सब बनता अपनेसँ मीत।
चलू सम्हरि, ठोकू कसिताल,
काज पड़ल अछि टालक टाल।
मिथिला माता रखती तोख,
‘बटुक’ मोटाउ अहाँ भरिपोख।
‘सूधा-धार सबतरि बरिसाउ,
काका लग दौड़ल चल आउ।

(बटुक, शतांक 1962)