दिग्भ्रम / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
हम दिग्भ्रमवश भुतिआयल छी, सुपथक समुचित ज्ञान कहाँ अछि
नाम रटैत रहै छी जनिकर स्मरण तनिक बलिदान कहाँ अछि।
एके गाछक वृन्त-वृन्ततँ
देखि पडै़छ फराक फराके
किन्तु फूल-फल सब फुनगीपर होय तकर अनुमान कहाँ अछि।
धरती बँटल रहय अपनेसँ
सागर सब मिलि बाँटि लेल अछि,
तन-मन वचन भने बाँटल हो, आसमान असमान कहाँ अछि।
रंग बिरंगक फूल लोढ़ि कय
माली सुन्दर हार बनाबय
रंग सुरभि रहितो विभिन्न ओहि ताग बीच व्यवधान कहाँ अछि।
नाक-कान-मुख-आँखिक रचना
मुण्डे-मुण्ड विभिन्न प्रकारक
किन्तु रक्त-मांसक रचनामे नियतिक भिन्न विधान कहाँ अछि।
मुसलमान, हिन्दू इसाइ सब
एकरे अन्न-पानिसँ पालित,
भाषा-भूषा भेन भिन्न हो, भिन्न सूर्य आ चान कहाँ अछि।
जाहि भूमिमे जन्म लेल अछि
तकरे लै ई जीवन अर्पित
कहबा लै कहि देल करै छी, करब किन्तु आसान कहाँ अछि।
अपन-अपन निष्ठा अनुसारेँ
अछि उपासना-पद्धति बाँटल
किन्तु एक गन्तव्य सभक अछि, ताहि सत्येकर भान कहाँ अछि।
एहू युगक महामानव सब
सबकेँ प्रेमक पाठ पढ़ौलनि
पाठ तकर सब ठाम करै छी, क्रिया करी ध्यान कहाँ अछि।