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दिति कन्या को / अज्ञेय
Kavita Kosh से
थोड़ी देर खुली-खुली
आँखें मिलीं
बिजलियों से दौड़े संकेत
सदियों की, संस्कारों की
नींवे हिलीं
अभिप्रेत हुए प्रेत
न देहें हिलीं-डुलीं
न कोई बोला,
गुँथ गयीं दो दुरन्त
जिजीविषाएँ
फिर पलटीं तुरन्त :
सहजता पर
हम लौटे आये।
कौंध में
मैं ने पहचाना
मेरे भीतर जो असुर है
रुँधा, छटपटाता
प्रबल, पर भोला।
क्या ठीक उसी क्षण
तुम ने भी
ओ दिति-कन्या
अपने मन की
धधकती गुहा का
द्वार खोला?
अपने को माना?
नयी दिल्ली, 20 जुलाई, 1968