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दिनक ठरैत काल / रमानन्द रेणु

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सूर्यक प्रखरता आर अधिक बढ़ि गेल
उष्णाताक कारणें सम्पूर्ण जीवन क्रुर भ’ गेल
आ हम एक अनाहत आकाँक्षा कें
एखन पर्यंत पोसने छी

हमर समस्त अन्तर्वेदनाक तार
आइ ओझरा गेल अछि
जकरा बिकछएबाक हेतु हम
अनवरत अथक प्रयास क’ रहल छी
किन्तु समस्याक ओझरौट
आर अधिक प्रगाढ़ होइत जा रहल अछि।

जीवनक संचित अक्षय कोष
सूखि रहल अछि
आ हम अपनाकें कखनो
कनियों स्थिर नहि क’ रहल छी

हमर अन्तश्चेतना जाहि भविष्यक विश्वास पर
संबंधक भीत ठाढ़ कएने छल
आइ अनायास भरभरा क’ रूसि पड़ल
धरतीक प्रत्येक खण्ड अनपेक्षित भ’ गेल
आ हम दूरि भ’ गेलहूँ अछि

मनोकामनाक मंदिरक दुआरि पर
टाँगल घण्टाक स्वरसँ
हम चौंकि जाइत छी अवश्य
किंतु आसक्त दीप
आइयो
आहिनो भकभकाइत रहैत अछि
बसातक विश्वास वास्तविकतासँ
दूरस्थे रहल अछि
परिणाम हमरासँ छल कएलक अछि
जन-जनक मोहकें
एखनो हम एकबट कर’ चाहैत छी
अस्मिताक देबाल पर
वस्तुस्थितिक रेघा घीचि
अनुरागक अक्षुण्ण स्वरूप ठाढ़ रहत
जे हमर मोनकें फेरसँ बाँट’ नहि देत

हम सदति इएह मनोरथ ल’ क’
आगाँ
बाट धएने चलल जाइत छी
बाट धएने।