दिनचर्या / वैशाली थापा
कोई मुझ से पूछता है
मैं क्या कर रही हूँ?
तब पूरा ठीक से बता नहीं पाती
कि क्या कर रही हूँ?
बर्तनों की उठा पटक में लगी हूँ
अस्तित्व को माँज रही हूँ
धारणाएँ धो रही हूँ और मेरे हाथ गीले है
गीले हाथों से लिखा नहीं जाता
कि क्या कर रही हूँ।
बुहार रही हूँ शब्द
झाड़ रही हूँ मात्राएँ
सजा रही हूँ स्वर दीवारों पर
और अब एक जगह बैठ गई हूँ थक कर
अब भी सब कुछ है अव्यवस्थित।
कि ख़ाक छान रही हूँ अख़बारों की
लोट-पोट हो रही हूँ उनमें
हर ख़बर के हो चुकी हूँ अनुकूल
ऐसी नहीं कोई ख़बर
जो लिपट जाए मेरी गर्दन से और बन जाए फांसी
या उलझ जाए बालों में
घुस जाए कानों में कनखजूरे की तरह
धीरे-धीरे कुतर डाले मेरा वजूद
ज़्यादा नहीं तो बाँध ही दे मेरे हाथ
और मैं लिख ही ना सकूं
कि मैं क्या कर रही हूँ?
मैं कैसे बताऊँ
मैं पिता के किस्से सुन रही हूँ
उन्हें नहीं पसन्द किसी को नीन्द से उठाना
वह समझते है हर आदमी मजदूर है, थका हुआ है
पिता है हर आदमी
मैं फ़िलहाल उनकी दुनियां में हूँ
यह बीसवी सदी है जहाँ एक डाकिए कि साइकिल को चुरा लिया है किसी ने
वह पैदल ही चला जा रहा है चिट्ठियाँ बांटने।
मैं झुंझला कर कहती हूँ
मैं बैठी हूँ
काम पर जा रही हूँ
किसी हिसाब में लगी हूँ
मगर असल में मुझे कहना चाहिए
मैं किताब घूर रही हूँ
इन्सानों की जगह स्मृतियों को दे रही हूँ
आश्चर्य कर रही हूँ किसी लम्बी बहस पर
या प्रतीक्षारत हूँ कि कोई पूछ ही ले मुझ से
मैं क्या कर रही हूँ?