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दिनभर / मनोज छाबड़ा
Kavita Kosh से
दिनभर
पत्ते गिरते रहे
शाम तक
सारा दरख़्त झरकर हो गया नंगा
थका हुआ दिन
मोड़कर घुटने
रात की चादर तले सो गया
और
पृथ्वी
नाउम्मीदी से ताक़ती रही आकाश की ओर
जहाँ
बड़े-बड़े आकाशीय पिंड
छोटे-छोटे बादलों से घिरे हुए थे
उधर
बूढ़ा ईश्वर
पथराई आँखों से
गड़बड़ी के बही-खाते देख रहा था
जहाँ जगह-जगह
कटिंग के निशान थे