भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिनोंदिन / बसंत त्रिपाठी
Kavita Kosh से
दिनोंदिन
बढ़ता जा रहा संकट
दिनोंदिन समृद्धि भी
मुटाती जा रही
लगातार
दिनों दिन
उदासीनता की चर्बी
चढ़ती जा रही आत्मा पर
कोई दिन
जीतने और हारने की दुखद दास्तान से
खाली नहीं।