भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिनों दिन सहेजता रहा बहुत कुछ / हिमांशु पाण्डेय
Kavita Kosh से
(१)
दिनों दिन सहेजता रहा बहुत कुछ
जो अपना था, अपना नहीं भी था,
मुट्ठी बाँधे आश्वस्त होता रहा
कि इस में सारा आसमान है;
बाद में देखा,
जिन्हें सहेजता रहा क्षण-क्षण
उसका कुछ भी शेष नहीं,
हाँ, जाने अनजाने बहुत कुछ
लुटा दिया था मुक्त हस्त-वह सारा
द्विगुणित होकर मेरी सम्पदा बन गया है ।
(२)
मैं ऐसा क्यों हूँ ?
कि मैं हर बार अपना अस्तित्व
लगा देता हूँ दाँव पर,
कूद जाता हूँ समन्दर में
केवल यह जानने के लिये, कि
कोई तो है जो मुझे बचाने आयेगा,
और यह सच पता चल सकेगा
कि वह तो सिद्धहस्त है
किसी को भी बचा सकने में ।