भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिनों वर्तन / कुमार कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बारूद भरने वाले हाथ नहीं जान सकते
कैसे रोते हैं पहाड़
चीख़ते हुए, कराहते हुए पहाड़
मरते हैं दिन में सौ-सौ बार

जयप्रकाश तुम ख़त्म कर रहे हो
जिन पहाड़ों का अस्तित्व
वे साध रहे हैं अन्दर ही अन्दर एक प्रलय-राग
सुनो उस राग की आग
समझो धरती पर गिरते
उनके आँसुओं का आक्रोश

पहाड़ नाना-नानी, सत्तू-पानी
गुड़धानी, सृष्टि की कहानी
मनुष्यता की आधानी
सभी कुछ एक साथ हैं
जंगल का विश्वास हैं पहाड़
मनुष्य का श्वास हैं पहाड़
नदी की आस हैं पहाड़
जीवन की प्यास हैं पहाड़।

लोग रखते हैं घरों में सहेज कर
पुरानी घड़ी
पुराना ग्रामोफोन
पुरानी तलवार
पुराने सिक्के
पुरानी मूर्तियाँ
पर कोई नहीं रखना चाहता घर में-
बूढ़ा आदमी
बूढ़ा आदमी होता है-
बोलता हुआ इतिहास
गुनगुनाता हुआ श्वास
टूटता हुआ विश्वास
वह होता है-
बची-खुची दया का दास।