भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन,कई दिन छिपा रहा जैसे / संजू शब्दिता
Kavita Kosh से
दिन,कई दिन छिपा रहा जैसे
कोई उसको सता रहा जैसे
ेसुब्ह, सूरज को नींद आने लगी
अब्र चादर उढ़ा रहा जैसे
एक आहट सी लग रही मुझको
कोई पीछे से आ रहा जैसे
हम मुसाफ़िर हैं एक जंगल में
खौफ़ रस्ता दिखा रहा जैसे
उलझा-उलझा सा एक चेहरा ही
सौ फ़साने सुना रहा जैसे
बढ़ गया आगे काफ़िला मेरा
मुझको माज़ी बुला रहा जैसे