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दिन-भर तलाशियाँ हुईं / रामकुमार कृषक
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दिन - भर तलाशियाँ हुईं
अब आकर यह पता चला,
सोफ़ों पर पसरा है अन्धियारा
बिजली की बत्तियाँ जला !
कैसा यह गोलमाल कैसा यह याराना,
रात के उजाले में उजलाते छुप जाना;
आज कल्ल परसों से
दिवस मास बरसों से,
कायम है यही सिलसिला !
आँखों में धूल झोंक सुरमे की तारीफ़ें,
गद्दों की झाड़ - पोंछ
तकियों को तकलीफ़ें;
मोड़ माड़ मस्तानी
हर करवट शैतानी,
बेमानी ही रहा गिला !
माना यह चोर - दौर, माना सब मौसेरे,
एक दिन छँटेंगे ही उजियारे अन्धेरे;
और नहीं बातों से
हाथों से लातों से,
टूटेगा रात का क़िला !