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दिन ! दिन !! दिन !!! / अम्बिका दत्त
Kavita Kosh से
बड़ी बेकली है
बड़ी बैचेनी है
मुक्त नही है - यह सुबह
पखेरू, इस धुंआते शहर पर
उड़ने से कतराते है
कोई बिजली का तार
छू गया है - उनकी पांख से
उत्तेजनाओं से भरी दोपहरी
और बड़ा अकेला है मन
आदमी के स्वर में बड़ी खराश है
पंखे में ग्रीस लगाना
इस साल भी रह गया
चौक से गुजर गया
कोई बेसुरा बैण्ड बाजा
पूरी तपेली भर कर बनती है
तीसरे पहर की चाय
अभी उबाल आना बाकी है
और अंगीठी धसकती जा रही है
बड़ा पतला है
इस वक्त की चाय का तेवर
चिड़ियो के शोर से भर गया
पूरा का पूरा पेड़
अंधेरे उजाले में बड़ा घालमेल है
सभी व्यस्त है -
अपने अपने तरीके से
बहुत आसान नही है
सभी रंगो के घालमेल में
किसी रंग की
अपनी, निजी पहचान ।