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दिन आधे-पौने हैं / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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शाह की हवेली में
काँच के खिलौने हैं
दिन आधे-पौने हैं

शीशे के गुंबज में
कैदी गौरैया है
अंधी मीनारों पर
सपनों की ढैया है

उनको फिर कौन छुए
सब के सब बौने हैं
दिन आधे-पौने हैं

आग लगी बस्ती में
ताल सभी सूखे हैं
मछली कंकाल हुई
बगुले सब भूखे हैं

धूप की हथेली पर
राख के दिठौने हैं
दिन आधे-पौने हैं

मोम की नदी गहरी
उसमें घर डूब रहे
पागल जलहंसी की
बातों से ऊब रहे

जाल बिछे जंगल में
भोले मृगछौने हैं
दिन आधे-पौने हैं