रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते
प्यास लेकर
जी रहीं हैं
आज समिधाएँ नई
कुण्ड में
पड़ने लगीं हैं
क्षुब्ध आहुतियां कई
भक्ति बैठी रो रही अब
तक धुंए का मन्त्र सुनते
छाँव के भी
पाँव में अब
अनगिनत छाले पड़े
धुन्ध-कुहरे
धूप को फिर
राह में घेरे खड़े
देह की निष्ठा अभागिन
जल उठी संकोच बुनते
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना
वस्त्र के
झीने झरोखे
टांकती अवहेलना
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते