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दिन का अन्त / बाद्लेयर / अभिषेक 'आर्जव'
Kavita Kosh से
सांझ के धुंधलके में, जब सूरज खो जाता है,
अर्ध-चेतन वह — जीवन — थिरकता नांचता है
अपनी लज्जाहीन, भंगुर गुस्ताखियों के साथ !
जैसे ही प्रेमिल-शीतल रात बिखरती है क्षितिज पर
सब कुछ शान्त कर देती है वह, विलीन हो जाता है
तृषा, लज्जा, क्षोभ, वाष्प बनकर !
कवि खुद से कहता है, “अनन्त दुःस्वप्नों की छाया से
भरा मेरा हृदय, विश्राम मांगती मेरी आत्मा, मेरी मेरुरज्जु ,
पा सकेंगे थोड़ा आराम, अगर मैं लेट जाऊं,
स्वयं को तुम्हारी अंधेरी चादर में लपेट कर, ओ जीवनदायी अंधेरो !”
अंगरेज़ी से अनुवाद : अभिषेक 'आर्जव'