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दिन की शाम जब ढल जाती है / जनार्दन कालीचरण

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दिन की शाम जब ढल जाती है
तब जीवन की मनभावन यात्रा से
तन का तथ जीर्ण हो जाता है
उसके पुर्ज़े घिस-पिट जाते हैं
यात्री रुक-रुककर आगे बढ़ता है ।

दिन की शाम जब ढल जाती है
तब यात्रा के झटकों से दर्द होता है
रथ में दम घुटने लगता है
यात्री थर-थर कांपने लगता है
पर शाम का दीपक जलता जाता है ।

दिन की शाम जब ढल जाती है
तब यात्री की आंखों में जल भर आता है
सारा स्नेह जल जाने पर भी
दीपक का लौ सिर हिलाता जाता है
सिसक-सिसक कर यात्री आगे बढ़ता है ।

दिन की शाम जब ढल जाती है
तब वह यात्रा बन्द करना चाहता है
पर दीपक में बाती बाकी रहती है
जिससे जलने का संबल पाता है
कोई पवन उसे बुझा नहीं पाता है ।

दिन की शाम जब ढल जाती है
तब सारी यात्रा बेकार लगती है
सारा देखा जग निस्सार लगता है
सब साथी-संगी पीछे छूट जाते हैं
निराश-हताश यात्री अकेला पड़ जाता है ।

दिन की शाम जब ढल जाती है
तब आंखों में कालिख-सी पुत जाती है
सिहर-सिहर कर जब दीपक बुझता है
सर्वत्र अमा का राज्य हो जाता है
और रथ पंच सुधा बन जाता है ।
दिन की शाम जब ढल जाती है ।।