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दिन गया शाम ढलने लगी / रंजना वर्मा
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दिन गया शाम ढलने लगी
बर्फ़ ग़म की पिघलने लगी
थक गये नैन भी बावरे
है निराशा मचलने लगी
झुक रही सांवरी रात फिर
रौशनी खुद को छलने लगी
लौट आईं सभी कश्तियाँ
अब है उम्मीद गलने लगी
फँस गयी मोह के जाल में
जिंदगी है बहलने लगी
कर्म कुछ नेक भी तो करें
चाह दिल में है पलने लगी
अब मिलन हेतु आ साँवरे
दीप बन श्वांस जलने लगी