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दिन गीत-गीत हो चला / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
एक क्षण तुम्हारे ही मीठे सन्दर्भ का
सारा दिन गीत -गीत हो चला
फ़ैलने लगे मन से देह तक
चाँदनी - कटे साए राह के
अजनबी निगाहो ने तय किए
फ़ासले समानांतर दाह के
अग्नि - झील तक हम को ले गई
जोड़ भरे गुलाबों की शृंखला
तोड़ कर घुटने वाले दायरे
एक प्यास शब्दों तक आ गई
कंधों पर मरुथल ढोते हुए
हरी गंध प्राणो पर छा गई
पलभर में कोई तुम से सीखे
मन को फागुन करने की कला