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दिन गुज़रता ये गिरता-पड़ता हुआ / महेश अश्क

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दिन गुज़रता ये गिरता-पड़ता हुआ।
दुख मुझे और मैं दुख को गढ़ता हुआ।।

हर पकड़ छूटती पकड़ की तरह
गर्दनों पर दबाव बढ़ता हुआ।

आँख घिरती हुई अन्धेरों से
हाथ जैसे चिराग़ गढ़ता हुआ।

ख़ुद से मैं छूटता हुआ पीछे
रौंद कर ख़ुद को आगे बढ़ता हुआ।

भूरा पड़ता एक-एक हरा लमहा
सीना-सीना शिग़ाफ़<ref>दरार</ref> पड़ता हुआ।

शब्द शीशा सिफ़त चटख़ते हुए
अर्थ पारे की तर्ह चढ़ता हुआ।

सोच मिट्टी में इक उतरती हुई
मूड मौसम का कुछ बिगड़ता हुआ।

आदमी बनती-मिटती रेखाएँ
और तोता नसीब पढ़ता हुआ।

क्या करूँ मैं ये ठहरा - कुछ लेकर
कुछ से, कुछ तो कहीं हो कढ़ता हुआ...।।

शब्दार्थ
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