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दिन गुज़र ही जाता है / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
दिन गुज़र ही जाता है, रात ठहरी होती है।
मैं अकेला रहता हूँ, नींद गहरी होती है।
प्यार करनेवाले भी ढूँढ़ने से मिलते हैं,
आज की मुहब्बत भी गूँगी बहरी होती है।
उनको ही समझाने की भूल कर रहे हैं जब,
गाँव के ही वासी की, सोच शहरी होती है।
होती है अमीरों को, दौलतों की गर्मी तो,
द्वारे पर ये गुरबत के, शीत लहरी होती है।
जो फँसे हैं केसों में, उनसे पूछ लो जाकर,
न्याय कैसा होता है, क्या कचहरी होती है।